जाति और जाति-प्रथा (Caste and Caste-System)-जाति मानव समाज का वह विभाजन है, जिसका आधार धन्धा, योग्यता और जन्म है। कई विद्वानों का विचार है कि जाति शंब्द संस्कृत के शब्द “वरण” के समान है। वहां ‘वरण’ के अर्थ ‘समूह’ और ‘रंग’ लिये जाते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि समूह और रंग दोनों शब्दों से जाति प्रथा का जन्म हुआ है।
समस्त तौर पर जाति प्रथा से हमारा अभिप्राय उन श्रेणियों से है जिनमें हमारा समाज प्राचीन काल में विभक्त था।
एच. रिसले (H. Risley) ने लिखा है, “जाति एक तरह के पारिवारिक संगठन या वंश समूह को कहते हैं, जिस समूह का एक ही नाम होता है या महान् मानवीय अस्तित्व से सम्बन्धित होता है। उसका एक ही व्यवसाय या धन्धा होता है और योग्य व्यक्तियों के विचारानुसार वह एक संयुक्त समुदाय है”।
श्री राम शास्त्री (Sh. Ram Shastri) ने लिखा है, “विवाह और भोजन जैसे सामाजिक विषयों में कुछ लोगों के परस्पर संगठित होने को ‘जाति प्रथा’ कहा जाता है”।
चलिए देखते है कि जाति प्रथा की उत्पत्ति किसे हुई।
जाति प्रथा की उत्पत्ति (Origin of Caste System)
जाति प्रथा कैसे और कब आरम्भ हुई? इसके बारे में विद्वानों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। नीचे मुख्य विचार दिये जाते हैं
(1) रंग के आधार पर (On the Basis of Colour)
अनेक विद्वानों का विचार है कि पहले रंग के आधार पर समाज को भिन्न-भिन्न जातियों में बांटा गया था। गोरे रंग के आर्य लोग काले रंग के आर्यों से घृणा करते थे। उनमें मेल-मिलाप नहीं था। आर्य जाति को “वरण” कहते थे। वरण का अर्थ रंग भी लिया जाता था।
यह सिद्ध करता है कि उस समय रंग के आधार पर ही समाज में जाति प्रथा थी परन्तु कुछ विद्वानों का विचार है कि चमड़ी के रंग के स्थान पर वस्त्रों के रंग के आधार पर जाति प्रथा चली थी।
उस समय ब्राह्मण सफेद वस्त्र पहनते थे। क्षत्रिय लाल रंग के वस्त्र पहनते थे। वैश्य पीले रंग के वस्त्र पहनते थे और शूद्रों के काले रंग के वस्त्र होते थे।
(2) पुरुष सूक्त के आधार पर (On the Basis of Pursh Sukta)
कुछ विद्वानों का विचार है कि जाति प्रथा मनुष्य द्वारा नहीं बनी। उन्होंने इसे ईश्वरीय देन बताया है। “पुरुष सूक्त मन्त्र” में लिखा है कि ‘ब्रह्म’ के मुख से ब्राह्मण बने, उसके बाजुओं से क्षत्रिय, टांगों से वैश्य और पांवों से शूद्रों ने जन्म लिया।
यह मत अथवा सिद्धान्त कल्पित लगता है। इसलिए इसे अधिकतर विद्वानों ने स्वीकार नहीं किया।
(3) काम के विभाजन के आधार पर (On the basis of Division of Labour)
अधिकतर विद्वानों और इतिहासकारों ने यह स्वीकार कर लिया है कि जाति की उत्पत्ति न तो रंग के आधार पर हुई और न ही ईश्वरीय देन है। अपितु जाति का आरम्भ तो काम के विभाजन के आधार पर हुआ है। पूर्व वैदिक काल में लोगों का जीवन साधारण था। जीवन में सांझ थी।
परन्तु उत्तर वैदिक काल में जीवन की आवश्यकताएं बढ़ गईं, इसलिए देश की रक्षा का कार्य राजाओं की तरफ से कुछ लोगों को सौंप दिया गया। ये लोग देश की रक्षा करते थे। इसलिए इन्हें ‘क्षत्रिय‘ कहा जाने लगा।
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राजाओं तथा लोगों में यज्ञ करवाने की रुचि बढ़ती गई। प्रत्येक व्यक्ति यज्ञ नहीं करवा सकता था। साथ ही धर्म भी जटिल हो गया था। अतः यज्ञ करवाने और धर्म के कार्य निभाने के लिए ब्राह्मण आगे आये। इस प्रकार ‘ब्राह्मण‘ वर्ग का जन्म हुआ।
कुछ लोग कृषि और व्यापार में जुट गये। उन्हें ‘वैश्य’ कहा जाने लगा। इन तीनों ही श्रेणियों अथवा जातियों के लिए सेवकों की आवश्यकता थी। इस प्रकार इसे तीनों की सेवा करने वाले को ‘शूद्र‘ कहा जाने लगा।
वैदिक काल में जाति प्रथा की उत्पत्ति तो हो गई थी परन्तु अभी यह बन्धन सख्त नहीं था। इसलिए मनुष्य अपना धन्धा बदल सकता था और साथ ही उसकी जाति भी बदल जाती थी।
चलिए देखते है कि जाति प्रथा का विकास कैसे हुआ।
जाति प्रथा का विकास या इतिहास (Growth of Caste System or History)
इस प्रकार समय व्यतीत होता गया। जाति प्रथा का रूप भी बदलता गया। भिन्न-भिन्न कालों में जाति प्रथा का विकास इस प्रकार हुआ-
प्राचीन काल में जाति प्रथा (Caste System in Ancient Period)
उत्तर वैदिक काल में जाति प्रथा में कठोरता आ रही थी। प्रायः लोग शूद्रों से घृणा करने लगे। लोग उन्हें नीच समझते थे और उनसे मेल-मिलाप भी कम हो गया था, परन्तु शेष तीनों जातियों के परस्पर अच्छे सम्बन्ध बने रहे। उस काल के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय समाज में क्षत्रियों और ब्राह्मणों में से किसे अधिक सम्मान दिया जाता था।
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बुद्ध काल में जाति प्रथा (Caste System in the Age of Buddha)
बुद्ध काल में जाति प्रथा के बन्धन और भी सख्त हो गये थे। बौद्ध और जैनी मांस नहीं खाते थे, जिससे अन्य भी नई जातियां पैदा हो गई थीं। महात्मा बुद्ध और स्वामी महावीर ने जात-पात के बन्धनों का खण्डन किया।
इसलिए जाति बन्धनों से पीड़ित लोगों ने बुद्ध धर्म और जैन धर्म स्वीकार कर लिए थे। इनके बाद यूनानियों और ईरानियों ने भारत पर आक्रमण किये तो आर्यों ने उनके साथ मेलजोल नहीं बढ़ाया, अपितु आर्य उन्हें ‘यवन’ कह कर घृणा करते थे। वे भारत में आकर बस गये जिससे और नई जातियों का जन्म हुआ।
मुस्लिम काल में जाति प्रथा (Caste system in Muslim Period)
मुसलमानों के आक्रमणों के बाद भारत में मुसलमानों के राज्य स्थापित करने से जाति प्रथा और भी सख्त तथा कठोर हो गई। मुसलमानों ने तलवार के बल पर इस्लाम धर्म का प्रचार किया जिससे बहुत से हिन्दू भारतीय मुसलमान बन गये।
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उनके इस्लाम धर्म स्वीकार करने से नई जातियां पैदा हो गईं। मुसलमान जहां राजनीतिक विजय चाहते थे वहां धर्म के प्रचार और भारतीय संस्कृति पर भी अपनी मोहर लगाना चाहते थे। इसलिए हिन्दुओं और मुसलमानों में दूरी बढ़ गई।
हिन्दुओं ने अपने धर्म और संस्कृति को बचाने के लिए जाति प्रथा के नियमों को और सख्त कर दिया। बाद में धार्मिक कट्टरता और जाति प्रथा की कठोरता को कम करने के लिए ‘भक्ति आन्दोलन‘ ने जन्म लिया।
सूफी मत और भक्ति आन्दोलन के प्रचारकों ने जाति प्रथा की निन्दा करके इसके बन्धनों को कुछ ढीला किया। हिन्दू और मुसलमान भी एक दूसरे के कुछ समीप आने लगे।
आधनिक युग में जाति प्रथा (Caste System in Modern Age)
आधुनिक युग में ईसाई प्रचारकों, आर्य समाज, सिंह सभा लहर, राधा स्वामी पन्थ और इस प्रकार की अन्य संस्थाओं ने जाति प्रथा को छिन्न-भिन्न करके रख
दिया है स्वतन्त्रता के बाद नये संविधान में जातपात और छुतछात को अवैध करार दे दिया गया है। छुतछात जातपात मानने वाले पर मुकद्दमा चलाया जा सकता है। अब तो रंग, धर्म, जाति का कोई भेदभाव नहीं रहा। सब को समान अधिकार प्राप्त हैं। देश का सुन्दर चेहरा काफी सीमा तक इस जाति भेदभाव के कोढ़ से साफ हो गया है।
ऐसे कोंन से कारण थे जिसकी वजह से जाति प्रथा का विकास हुआ। चलिए अब इसके बारे में देखते है।
जाति प्रथा के विकास के कारण (Causes of the Development of Caste System)
जाति प्रथा के विकास के कई कारण हैं जिनमें से मुख्य निम्नलिखित थे-
(i) ब्राहाणों का प्रभाव-
ब्राह्मणों ने समाज में अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए कई नियम बनाए हुए थे जिनका पालन करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए जरूरी होता था। उन्होंने जाति के नियमों को भी बहुत कठोरता से लागू किया। जो व्यक्ति इन नियमों को भंग करता था, उसे जाति से निकाल दिया जाता था। इस प्रकार वह अपनी अलग जाति बना लेता था।
(ii) दूरस्थ स्थानों पर बसना-
एक ही जाति के लोग दूर-दूर स्थानों पर जा बसे । इससे भी जातियों में वृद्धि हुई। जब एक जाति के लोग अपनी जाति से अलग होकर दूरस्थ स्थानों पर जा बसते थे तो उन्होंने अपने नए वातावरण के अनुसार जीवन व्यतीत करना शुरू कर दिया। इससे उनका अपनी जाति के लोगों से मतभेद हो गया तथा उनकी अपनी भिन्न जातियां बन गईं।
(iii) अन्तर्जातीय विवाह-
यह ठीक है कि उस समय अपनी जाति से बाहर विवाह करना धर्म के विरुद्ध समझा जाता था। लेकिन फिर भी अपनी जाति के नियमों को भंग करके कुछ लोग दूसरी जाति में विवाह कर लेते थे। इस प्रकार के पति-पत्नी और उनके बच्चों की अलग जाति बन जाती थी।
(iv) बौद्ध धर्म और जैन धर्म का सहयोग-
जाति प्रथा के विकास में बुद्ध धर्म और जैन धर्म का भी बहुत सहयोग था। इन धर्मों के अहिंसा सिद्धान्त ने जाति प्रथा को विकसित होने में सहायता की। उसका कारण यह था कि बुद्ध धर्म और जैन धर्म के अहिंसा सिद्धान्त के प्रभाव से कई लोगों ने जीव-हत्या और मांस खाने वालों से घृणा करनी शुरू कर दी।
उनकी मांस खाने वालों से भिन्न जातियां बन गईं। इसके अतिरिक्त कई हिन्दू परिवार जिन्होंने बुद्ध धर्म या जैन धम धारण किया था, फिर से अपने पहले धर्मों में आ गए थे, उनकी अपनी अलग जातियां बन गई।
(v) नए धन्धे-
ज्यों-ज्यों समाज विकसित होता गया, नए धन्धे बनते गए। इस प्रकार धन्धों में काफी वृद्धि हो गई। जिन लोगों ने नए धन्धे अपनाए थे, उन्होंने अपने वर्ग अर्थात् जातियां भी अलग बना लीं।
(vi) विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण-
इतिहास साक्षी है कि भिन्न-भिन्न समय पर हूणों, शकों और यूनानियों ने भारत पर हमले किए तथा कइयों ने जीत प्राप्त करके भारत में ही रहना शुरू कर दिया। कइयों ने भारतीयों के साथ विवाह सम्बन्ध भी जोड़ लिए । कइयों ने तो हिन्दू धर्म भी ग्रहण कर लिया । इस प्रकार उनकी भिन्न-भिन्न जातियां बन गई।
(vii) जाति प्रथा के विकास में इस्लाम का योगदान-
जाति प्रथा के विकास में इस्लाम धर्म का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसका कारण यह था कि मुसलमान भारतीय धर्म, सभ्यता और संस्कृति पर छा जाना चाहते थे। परन्तु हिन्दुओं ने अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अपने जाति के नियमों में कठोरता का समावेश कर लिया। इसलिए कुछ लोग उनके निकट चले गए। कट्टर हिन्दुओं ने उनसे घृणा करनी शुरू कर दी जिससे उनकी भिन्न जातियां बन गईं।
इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि समय बीतने पर जहां कई जातियां और उप-जातियां बन गई, वहीं जातियां जटिल और कठोर भी बन गईं।
चलिए इसके लाभ देखते है।
जाति प्रथा के लाभ (Merits of Caste System)
किया है। इस प्रथा ल गुण तो जरूर होंगे जो सदियों तक चलती रही। इसके निम्नलिखित लाभ हैं
हिन्दू धर्म और संस्कृति की सुरक्षा-
प्राचीन काल में भारत पर विदेशियों के आक्रमण होते रहे। अब कुषाण, तुर्क, मुगल और अंग्रेजों ने भारत पर आक्रमण किये और राज्य भी स्थापित किये। वे भारतीयों पर अपना धर्म और संस्कृति ठूसना चाहते थे। परन्तु जाति प्रथा के कारण भारतीयों ने उनसे अधिक मेल-मिलाप पैदा ही नहीं किया। इसलिए हिन्दू धर्म और संस्कृति सुरक्षित रहे।
रक्त की पवित्रता (Purity in Blood)-
जाति प्रथा के कारण भारतीयों के रक्त की पवित्रता कायम रह सका प्रत्येक जाति अपनी जाति में ही विवाह सम्बन्ध स्थापित करती थी। इसलिए एक जाति का दूसरी जाति में विवाह नहाहाता था। परिणाम यह हुआ कि भारत-वासियों की पवित्रता कायम रही।
उच्च चरित्र (High Character)-
जाति प्रथा के कारण लोगों का चरित्र उच्च और स्वच्छ रहा। वे अपनी जाति के नियमों में बन्धे हुए लोग, कोई ऐसा बुरा कार्य नहीं करते थे जिससे उन्हें उनकी जाति से निकाल दिया जाये। जाति से निकाला जाना बहुत अपमान और बेइज्जती की बात होती थी। इस प्रकार लोगों का चरित्र ऊंचा बना रहता था।
धन्धे की कोई चिन्ता नहीं-
जाति प्रथा के कारण बेकारी की समस्या समाध हो गई थी। उसका कारण यह था कि जातियां धन्धे के आधार पर बांटी गई थीं। बच्चे को कोई चिन्ता नहीं होती थी कि उसने बड़े होकर क्या काम करना है। उसे मालूम होता था कि उसे कोई नौकरी ढूंढने की आवश्यकता नहीं। उसने तो बाप-दादा वाला ही काम करना है। इसलिए बचपन से ही उस काम में जुट जाता था।
कला कौशल में उन्नति-
जाति प्रथा के कारण प्रत्येक बच्चे को मालूम। होता था कि उसने अपने बाप-दादा वाला धन्धा ही करना है। इसलिए वह बचपन से ही हाथ सीधे करना आरम्भ कर देता। था। इस प्रकार देर का अभ्यास उसे शिरोमणी कलाकार बना देता था। इसलिए भारतीय कलाओं पर यौवन आया और उनका बहुत विकास हुआ।
समाज सेवा (Social Service)-
जाति प्रथा ने लोगों में समाज सेवा की भावना को जन्म दिया। प्रत्येक जाति के अमीर लोग अपनी जाति के गरीब लोगों और रोगियों की सेवा और सहायता करना अपना कर्त्तव्य समझने लगे। इस प्रकार लोगों में बिरादरी की भावना भी पैदा हो गई। वे समाज सेवा में जुट गये।
कृषि की उन्नति (Progress of Agriculture)-
जाति प्रथा के अनुसार वैश्यों को मालूम था कि उनका कार्य कृषि करना और अधिक अनाज पैदा करना है। इसलिए युद्ध के दिनों में भी वे कृषि में जुटे रहते थे जिससे कृषि की काफी उन्नति हुई और देश में अनाज का अभाव नहीं होता था।
शिक्षा का कार्य आसान (Easy Education)-
जाति प्रथा के कारण शिक्षा के प्रचार का कार्य बहुत आसान हो गया। ब्राह्मणों का कार्य पढ़ना और पढ़ाना ही था। प्रत्येक गांव में एक पाठशाला होती थी, जहां शिक्षा का कार्य ब्राह्मण करते थे। शिक्षा निःशुल्क होती थी। इसलिए हर कोई आसानी से अपने बच्चे को शिक्षा प्राप्ति के लिए भेज देता था।
स्थाया सेना की आवश्यकता न होना-
जाति प्रथा के कारण देश की सुरक्षा का कार्य क्षत्रियों ने सम्भाला हुआ था। इसलिए आवश्यकता पड़ने पर सब क्षत्रिय देश की रक्षा करने के लिए तैयार हो जाते थे। अतः स्थायी सेना की कोई आवश्यकता नहीं थी।
चलिए अब जाति प्रथा की हानियां देखते है।
जाति प्रथा की हानियां (Demerits of Caste System)
जाति प्रथा की हानियां इसके लाभों से कहीं अधिकर हैं। मध्यकाल से ही इसे भारतीय समाज की सबसे अधिक घृणा योग्य बुराई समझा जाने लग पड़ा था। इसे मानवीय संस्थाओं में सबसे अधिक विनाशकारी माना जाता है।
प्रसिद्ध इतिहासकार एन.एन. घोस (N.N. Ghose) ने लिखा है, “कि यह ऐसी बुराई है जो हिन्दु समाज को अन्दर ही अन्दर खाए जा रही है। इसी तरह भारत के मुख्य सुधारकों कबीर साहिब, गुरु नानक देव जी, गुरु गोबिन्द सिंह जी, स्वामी दयानंद और महात्मा गांधी ने इस बुराई के अन्त के लिए भरपूर यत्न किये थे। इस प्रथा की निम्नलिखित हानियां हैं
राष्ट्रीय एकता का पतन-
जाति भेदभाव के कारण देश की राष्ट्रीय एकता बिल्कुल भंग हो गई। परस्पर दुश्मनी के कारण संयुक्त मोर्चे पर मिल कर देश की सुरक्षा का विचार मर गया। जिस समय भारत पर कोई बाहरी आक्रमण होता था,
तो उसका मुकाबला जाति प्रथा के अनुसार केवल क्षत्रिय ही करते थे और शेष सब जातियां मुह ही देखती रहती थीं क्योंकि सुरक्षा का कार्य केवल क्षत्रिय जाति के जिम्मे था। इसलिए बहुत से विदेशी आ को यह जाति प्रथा विजयी बना देती थी।
धार्मिक उन्नति में बाधा-
जाति प्रथा के कारण हिन्दू धर्म का विकास रुक गया। उसका कारण यह था कि अन्य जातियों और धर्मों के लोगों को हिन्दू धर्म अपनाने का अधिकारी नही था, यदि कोई अन्य धर्म वाला हिन्दु धर्म ग्रहण भी कर लेता था तो हिन्दू धर्म वाले उसे समानता नहीं देते थे और निम्न श्रेणी का हिन्दू गिना जाता था। इस प्रकार धार्मिक उन्नति में बाधा पड़ गई।
ऊंची जातियों को हानि-
कई बार काम करते हुए अथवा दुर्भाग्य से कोई कही ऊंची जाति वाला गरीब हो जाए तो उसके जीवन में जाति प्रथा बहुत दुःख पैदा कर देती थी। वह ऊंची जाति का होने के कार छोटा काम नहीं कर सकता था और बड़ा काम उसे मिलता नहीं था। जिस कारण ऊंची जाति वालों को कई बार कठिनाई का सामना करना पड़ा।
छूत-छात (Untouchability)-
जाति प्रथा की मुख्य हानि यह हुई कि इसने छूत-छात की भावना को जन्म दिया। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, शूद्र जाति को नीच और घटिया समझ कर उसे घृणा करने लगे। शूद्र सब का सेवक था सबके काम करता था। इसलिए उसे अछूत समझा जाने लगा। शेष लोग शूद्र की परछाई से भी दूर रहने लगे, उन्हें आम कुंओं से पानी भरने की आज्ञा नहीं थी। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज गिरावट की गर्त की तरफ चल पड़ा।
व्यक्तिगत विकास में बाधा-
जाति प्रथा के कारण प्रत्येक बच्चे को अपने पिता का धन्धा ही अपनाना पड़ता था चाहे उस बच्चे की रुचि धन्धे में हो अथवा न हो। इसलिए कई बार वह विवशता में पिता वाला धन्धा अपना लेता था, चाहे वह नहीं चाहता था, परन्तु उसके लिए अन्य कोई मार्ग नहीं होता था। परिणामस्वरूप उसके व्यक्तिगत विकास में बाधा पड़ जाती थी।
परस्पर ईर्ष्या (Mutual Jealousy)-
जाति प्रथा के कारण कई जातियों में परस्पर ईर्ष्या की भावना बढ़ती गई। वे एक दूसरे से घृणा करने लगे। ब्राह्मण क्योंकि धार्मिक कार्य करते थे इसलिए अपने आप को सबसे उत्तम समझते थे। क्षत्रिय समझते थे कि वे देश की रक्षा करते हैं इसलिए उनके बिना किसी का निर्वाह नहीं हो सकता। इस प्रकार जातियों की परस्पर ईर्ष्या और घृणा में वृद्धि होती गई जो स्वस्थ समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हुई।
विवाहों में बाधा (Hindrance in Marriages)-
जाति प्रथा के कारण प्रत्येक जाति वाले विवाह अपनी ही जाति में कर सकते थे। ब्राह्मणों के विवाह क्षत्रियों अथवा वैश्यों के साथ नहीं हो सकते थे। इसलिए हिन्दुओं के विवाहों के लिए बहुत सीमित और छोटा क्षेत्र रह गया था। अतः कई हिन्दुओं ने अपना धर्म छोड़ कर अन्य धर्म ग्रहण कर लिए।
प्रजातन्त्र विरोधी (Anti-democratic)-
जाति प्रथा प्रजातन्त्र के सिद्धान्त का विरोध करती थी। प्रजातन्त्र में सबके अधिकार बराबर होते थे। सब को समान समझा जाता है। सब अपनी इच्छा से किसी भी जाति में विवाह कर सकते हैं, परन्तु जाति प्रथा में समानता नहीं होती। अतः वह प्रजातन्त्र विरोधी है।
विदेशियों से मेलजोल में बाधा-
भारत में जाति प्रथा की कठोरता के कारण भारतवासी विदेशियों से मिल जुल कर नहीं रहे। भारतीय उन्हें अपने से घटिया समझ कर उन से घृणा करते रहे। जिस कारण उनकी अच्छी बातें भी ग्रहण नहीं कर सके। इस प्रकार भारतीय विदेशी संस्कृति के गुणों से वंचित रह गये।
सामाजिक बुराइयों का प्रचलन-
जाति प्रथा ने समाज में कई बुराइयों को जन्म दिया। ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ से इस प्रकार के रिवाज बना लिए जिनसे उन्हें आर्थिक लाभ हो और उनका समाज में सम्मान और अधिकार बना रहे। ब्राह्मणों द्वारा प्रचलित बाल विवाह, सति-प्रथा, विशेष श्राद्ध भारतीय समाज के लिए बीमारियां बन गये।
मनाविज्ञान के विरुद्ध (Against Psychology)-
मनोविज्ञान के अनुसार प्रत्येक बच्चा कुछ विशेष शक्तिया लेकर जन्म लेता है। विद्या उन शक्तियों का विकास करती है। जाति प्रथा में पिता वाला धन्धा ही पुत्र को करना पड़ता था। ब्राह्मण के पुत्र की रुचि चाहे धर्म का कार्य करने की न हो परन्तु करना पड़ता था। अत: इस प्रथा से व्यक्ति को अपना रुचि दबानी पड़ती थी जिससे व्यक्ति और समाज दोनों को हानि होती थी।
सत्य तो यह है कि जाति प्रथा ने हमारे देश में बहत हानि पहुंचाई है। छत-छात के नाम पर मनुष्य द्वारा मनुष्य पर जल्म और अत्याचार होते रहे । बाहर से आए आक्रमणकारी हमें दास बना कर हमारे ऊपर राज्य करते रहे क्याकि हम में एकता नहीं थी।
भाग्य से गुरु नानक और कबीर जैसे महापुरुषों ने इस कोढ को दूर करने का प्रयत्न किया। महात्मा गांधी ने छूत-छात का अन्त करने के लिए भारी आन्दोलन आरम्भ किया था। अब तो छूत-छात कानून के विरुद्ध करार दे दिया गया है।
जाति प्रथा के बारे में इतना कुछ जानने के बाद इसका भविष्य क्या होगा। चलिए इसके बारे में जानते है।
जाति प्रथा का भविष्य (Future of Caste System)
प्राचीन काल में जाति प्रथा चाहे कितनी उपयोगी रही हो, लेकिन अब इसका भविष्य काला दिखाई देता है। इसके कारण प्राचीन काल, मध्य काल और आधुनिक काल में बहुत बुराइयां फली फूली। इसलिए आधुनिक काल में इसका महत्त्व बहत कम हो गया है तथा प्रतिदिन नई रोशनी और सरकार के प्रयासों से और भी घटना जा रहा है
स्वतन्त्र भारत के संविधान ने सभी नागरिकों को समानाधिकार दिए है तथा छुआछत और ऊंच-नीच को अवैध घोषित किया है। इसके बिना विज्ञान के विकास, पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव, औद्योगिक विकास, स्त्री शिक्षा के विकास, समाचार पत्रो, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक आन्दोलनों ने जाति प्रथा का गला घोंट दिया है।
संविधान ने सारे नागरिकों को अपनी इच्छा से व्यवसाय चुनने का अधिकार दिया है। अब जरूरी नहीं कि नागरिक अपना पैतृक धंधा ही करें, वे अपनी योग्यता के अनुसार कोई भी व्यवसाय अपना सकते हैं। यातायात के साधन विकसित हो गए हैं। रेलों, बसों और हवाई जहाजों में सारे लोग इकट्ठे सफर करते हैं।
स्कूलों और कालेजों में सारी जातियों के विद्यार्थी समान रूप से भर्ती किए जाते हैं तथा सारे एक ही कमरे में बैठ कर शिक्षा प्राप्त करते हैं। मन्दिरों, अस्पतालों तथा दफ्तरों आदि में सारी जातियों के लोग इकट्ठे काम करते हैं। इस प्रकार के अनुकूल वातावरण के फलस्वरूप हमारे देश में राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय भावना में विकास होता जा रहा है।
इससे देश का तेजी से विकास हो रहा है। जाति प्रथा के बन्धनों में ढील तो आ गई है लेकिन फिर भी यह बीमारी कई बार सिर उठा लेती है। इसे बुरी तरह कुचलने की आवश्यकता है। डा० एस० आर० शर्मा (S. R. Sharma) ने लिखा है, “जाति प्रथा तो एक खोटे सिक्के की तरह है, जिसे आधुनिक युग के हित के लिए फिर से पिघला कर टकसाल में ढालना होगा।
इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि आने वाले समय में जाति प्रथा की बीमारी जड़ से समाप्त हो जाएगी।
उम्मदी करता हु यह लेख आप को अच्छा लगा होगा। फिरभी यदि आपको इस लेख से सम्बंधित को परेशानी है, तो आप मुझसे contact करा सकते है मैं आपकी मदद जरुर करूँगा।
धन्यवाद…।
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आनंद पटेल
शानदार बहुत ही अच्छी पोस्ट लिखी है आपने पढ़के अच्छा लगा
Your Friend
Thank you bro